आपके जन्मों के संस्कारों से आपका अंतःकरण बनता है: सद्गुरु श्री मधुपरमहंस जी महाराज

साहिब बंदगी के सद्गुरु श्री मधुपरमहंस जी महाराज ने आज पूर्णिमा के अवसर पर संत आश्रम राँजड़ी में अपने प्रवचनों की अमृतवर्षा से संगत को निहाल करते हुए कहा कि आपके जन्मों के संस्कारों से आपका अंतःकरण बनता है। मेरी माँ है, मेरा घर है, यह सब कर्मानुकूल बना। यह संसार कर्म भूमि है। और कहीं भी कर्म नहीं है। कर्म केवल इस जगत में है। मनुष्य का दिमाग, वृत्तियाँ, सब कर्मानुकूल है। जो बुद्धू है, वो भी कर्मानूकूल है। जो तेज बुद्धि वाला है, वो भी कर्मानुकूल है। कर्म की फाँस में सारा संसार बँधा हुआ है। इस अनन्त ब्रह्माण्ड में केवल भूमि पर कर्म है। बाकी कहीं भी कर्म नहीं है। बाकी सब भोग लोक हैं। कर्म से आत्मा का कोई संबंध नहीं है। जिस संसार में रह रहे हो, कर्म का जाल है। किसी कोण से भी आत्मा का कर्म से कोई संबंध नहीं है। कर्म भी खुद ही करवाया जा रहा है और कष्ट भी खुद दिया जा रहा है। जीव बड़ी लूट में है। फिर आत्मा कर्मों का फल क्यों भोग रही है। यह प्रश्न बहुत बारीक है। कर्म दो प्रकार के हैं। शुभ और अशुभ। मुझसे एक ने बोला कि जो अच्छे कर्म कर रहे हैं, यह आत्मा है न। और जो बुरे कर्म कर रहे हैं, वो मन है न। मैंने कहा कि नहीं। दोनों कर्म मन के द्वारा संचालित हैं। जब जीते-जी अपने स्वरूप में स्थापित हो जाता है तो समझ जाता है कि किसी भी कर्म से संबंध नहीं है। जब तक दिमाग से चलेगा तब तक सब कर्म सच लगेंगे। जब आत्मनिष्ठ हो जाता है तो वहाँ पर मन की क्रिया समझ में आ जाती है। दो तरह के कर्म हैं। शुभ और अशुभ। निरंजन कर्म का फल जरूर देगा। पर कर्म की गति बड़ी बारीक है। पुण्य करके मनुष्य कर्म करता है और पाप बन जाता है। झूठ, माँसाहार, परस्त्रीगमन आदि पाप कर्म हैं। पर जब आत्मा कर्म से अलग है तो भोग क्यों रहा है। झूठ से आत्मा का क्या संबंध है। अपने निकृष्ट कर्मों को छुपाने के लिए झूठ बोल रहा है। जीभ के स्वाद के लिए माँसाहार कर रहा है। यह सब मन करवा रहा है। पर आत्मा उर्जा दे रही है, इसलिए सजा मिल रही है। आप जो भी कर्म कर रहे हैं, मन कर रहा है। मन कभी नहीं चाहता है कि आप आत्मा का कल्याण कर सकें। तीन लोक में सभी कैद हैं। क्या जेल ऐसा होता है कि कोई निकल सके। इस तरह मन आपकी आत्मा को निकलने नहीं देना चाहता है। मन सबको नचा रहा है। इस मन को आप अनुभव करो। मैं कहता हूँ कि ध्यान में बैठो। कुछ कहते हैं कि ध्यान में बैठते हैं, पर कुछ पता नहीं चलता। आप ध्यान में यह सोचकर मत बैठो कि प्रकाश देखूँगा। आप एकाग्र हो। एकाग्र हुए बिना कुछ नहीं देख सकते हैं। बना एकाग्रता आप झल्लाएँगे। आप जानने की कोशिश करेंगे कि मैं एकाग्र क्यों नहीं हो पा रहा हूँ। स्वांसा का सुमिरन आपको अपने में रखेगा। आप मन के वेग में नहीं बहेंगे। जब आप सुमिरन कर रहे हैं तो आपको एक मदद मिल गयी। सुमिरन ध्यान की कूंजी है। माताएँ बहनें दही मथती हैं, ऐसे सुमिरन एक मथानी है। इंद्रियों में रमी हुई आत्मा सुमिरन से एकाग्र हो जायेगी। सुमिरन चलते फिरते, खाते-पीते करना है। जप, तप, सुमिरन आदि सब सुमिरन में आ जाते हैं। किसी विशेष मुद्रा में बैठकर सुमिरन नहीं करना है। दूध चाहे पढ़ा लिखा पीए चाहे अनपढ़, बराबर का लाभ देगा। इस तरह सुमिरन है। कोई नियम नहीं है कि बैठकर सुमिरन करें। चाहे कुछ भी कर रहे हैं, सुमिरन कर सकते हैं। सुमिरन के अलावा कुछ भी कर रहे हैं, वो मन का जाल है। कई बार आपने फैसला किया होगा कि सुमिरन करना है। थोड़ी देर में मन का मोहिनी मंत्र आता है और आप सुमिरन भूल जाते हैं। हर पल सुरति को संभालना है। इस मन पर हमेशा नियंत्रण करना। बड़ी चंचल मन है। यह पल भर भी नहीं ठहरता है। यदि ठहर गया तो काम बन गया। सुमिरन नहीं भूलना। सुमिरन हर तरह की ताकत दे देगा। लोग तो पर्वतों पर चढ़ जाते हैं। फिजूल बातें मत करो। फिजूल लोगों के साथ उठो-बैठो नहीं। अपने नित्य नियम में सुमिरन को शामिल करो। भय रखो कि 84 लाख योनियाँ भोगने के बाद मानव तन मिला। यह व्यर्थ न जाए।

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